बचपन में पिताजी के जूते में
पैर डालकर चलना अच्छा लगता था
दादा जी की छड़ी और हैट भी
पहनना भाता था।
बाथरूम में खड़े साबुन हथेलियों में घिसकर झाग में फूँक मारकर बड़े गुब्बारे बनाना प्रिय खेल था।
आईने के सामने खड़े मांस – पेशियों के रेशों को देखना मन को प्रसन्न कर देता था
पता नहीं वह उम्र बढ़ती उम्र के साथ कहाँ छूट गई।
बचपन के वे हॉकी स्टिक और बैट
जो हर दम दरवाज़े के पीछे रखे रहते थे,
कंचे,गुलैल, गुल्ली डंडे,पतंग और डोर
जो खाट के नीचे सजे रहते थे
सब न जाने कहाँ छूट गए।
जिस उम्र को हासिल करने
बचपन को छोड़ा
न जाने वह जवानी भी कहाँ छूट गई।
अब जो मुँह बाए खड़ा है
वह है छूटा वक्त , भागती जिंदगी
भीड़ में खोए रिश्ते और शायद
कुछ पुरानी यादगार ।
सब बायस्कोप की तरह
आँखों को सामने घूमते हैं
बस यहाँ अब कोई ७० एम एम का स्क्रीन नहीं होता।
ऋता सिंह
नमस्ते दीदी,
सच ही कहा आपने, यहां कोई 70 mm स्क्रीन नहीं है पर छुटा हुआ वह उन बीते लम्हों का बाइस्कोप आखों के सामने आ ही जाता है। जीवन के कटु सत्य को कितनी सहजता से प्रस्तुत किया है आपने।
बधाई
अमित
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